बौद्ध धर्म की स्थापना गौतम बुद्ध ने की थी। उनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु (नेपाल) के लुम्बिनी नामक ग्राम में शाक्य कुल में 563 ई०पू० में वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। इनके पिता का नाम शुद्धोधन था, वे शाक्य गण के मुखिया थे। इनकी माता का नाम महामाया था। बुद्ध के जन्म के ठीक सात दिन बाद ही इनकी माता महामाया की मृत्यु हो जाती है, उसके बाद इनका देखभाल इनकी विमाता (सौतेली माँ) महाप्रजापति गौतमी ने किया था। मात्र सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का विवाह शाक्य कुल की कन्या यशोधरा से कर दिया जाता है। सिद्धार्थ से उनकी पत्नी यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राहुल रखा गया।
इनके घोड़े का नाम कन्थक तथा सारथी का नाम चन्ना था। इनका सारथी चन्ना एक तरह से इनका गाइड था, हमेशा समझाता रहता था कि राजकुमार/महाराज ये ऐसा है, वो वैसा है। एक बार भगवान गौतम बुद्ध अपने सारथी चन्ना के साथ भ्रमण पर निकले हुए थे। तभी रास्ते में इन्होंने एक वृद्ध व्यक्ति को देखा जो शारीरिक रूप से बहुत ही कमजोर था, कांप रहा था, डर रहा था। गौतम बुद्ध ने सारथी से पूछा, “ये कौन है?” तब सारथी ने बोला महाराज/राजकुमार ये बूढा व्यक्ति है और बूढा आपको भी और हमें भी होना है। आने वाला समय के साथ हर व्यक्ति बूढा जरूर होता है। यह सुनकर उनका मन विचलित हो जाता है। वे सोच में पड़ जाते हैं कि मैं भी बूढा होने वाला हूँ, मुझे भी दुखों का सामना करना पड़ेगा।
उसके बाद थोड़ा आगे जाने पर उन्हें एक बीमार व्यक्ति मिला। बीमार व्यक्ति के बारे में उन्होंने सारथी से पूछा तो उसने कहा, “महाराज, लोग तो बीमार होते रहते हैं, ये तो ऐसा चलता रहता, ये तो संसार का नियम है।” अगर आप हेल्दी खाना खाते हैं, व्यायाम करते हैं तब हो सकता है कि आप बीमार न हों, लेकिन ऐसा तो बिल्कुल नहीं हो सकता कि आप जिंदगी भर निरोगी रहें। कभी न कभी तो बीमार होना पड़ता है। इससे भी उनका मन विचलित हो गया।
उसके बाद थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्होंने देखा कि कुछ लोग अपने कंधे पर एक मृत व्यक्ति का शव लिए जा रहे है। तो उन्होंने चन्ना (सारथी का नाम) से पूछा ये कौन है? तब सारथी ने बताया कि एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी है, ये लोग उसका अंतिम संस्कार करने के लिए जा रहे हैं। सारथी ने आगे बताया कि मृत्यु एक अटल सत्य है। इससे आप ज्यादा घबराएं नहीं। जो भी इस जीवन में आया है, उसे इस जीवन को छोड़कर एक दिन जाना है। इससे उनका मन और भी विचलित हो जाता है।
उसके बाद आगे बढ़ने पर उन्हें एक सन्यासी मिलता है जो अपना ध्यान केंद्रित किये हुए पूरा मस्त मगन में एक पेड़ के नीचे बैठा होता है। उसे देखकर बुद्ध के दिमाग में एक सवाल आता है आखिर ये इतना प्रसन्न क्यों है? तब उनका सारथी कहता है महाराज, ये जो है सबकुछ छोड चुका है, त्याग चुका है। इसे सत्य का ज्ञान प्राप्त हो चुका है। इसलिए ये सभी मोह माया से मुक्त होने के कारण प्रसन्न है। तो वहां से जो है बुद्ध का दिमाग थोड़ा सन्यासी के तरफ आकर्षित हो जाता है और वो सोचते हैं कि मुझे भी दुःख के कारणों को जानना है और दुःख को खत्म करना है।
इसके बाद सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग देते हैं। इस घर त्यागने की प्रकिया को बौद्ध धर्म में महाभिनिष्क्रमण कहा गया है। घर त्यागने के बाद सर्वप्रथम वे वैशाली (वज्जि गणराज्य की राजधानी) आये। वहाँ पे उन्होंने अलारकलाम नाम के एक ऋषि को, जो सांख्य दर्शन के ज्ञाता थे, उन्हें अपना गुरु बना लिया। तो जो भी शिक्षा उन्होंने दी उसे वे फॉलो करने लगे। उन्होंने कोशिश की शायद हमें वो प्राप्त हो जाये उस सन्यासी की तरह मैं भी टेंशन फ्री हो जाऊं, मैं भी खुशी रह पाऊं। लेकिन उन्हें वो सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। उनके अंदर-अंदर जो सवाल चल रहे थे कि लोग बूढ़े क्यों होते हैं? मरते क्यों हैं? इन सभी दुखों का कारण क्या है? ये सारे सवाल उनके अंदर चलते रहते थे तो उन सभी सवालों के उत्तर उन्हें नहीं मिल पा रहे थे। वैशाली से आगे निकलकर फिर वे राजगृह में आ गए। राजगृह से भी आगे निकलकर फिर वे गया चले आये। उरुवेला (बोधगया) के जंगल में उन्हें पांच साधक मिले। ये पांच साधक उनके साथ यहीं तपस्या करने लगे। इस क्रम में उन्होंने अन्न, जल सब कुछ त्याग दिया।
बिना अन्न-जल ग्रहण किए हुए 6 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद गया में ही 35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा की रात निरंजना नदी (फल्गु नदी) के किनारे एक पीपल के वृक्ष के नीचे इन्हें यानी सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त होता है। जब सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब से ये ‘बुद्ध’ कहलाने लगते हैं। ‘बुद्ध’ का मतलब होता है- एक ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति। ज्ञान प्राप्ति के बाद से ही गया, बोधगया के रूप में जाना जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति की घटना को बौद्ध ग्रंथों में ‘सम्बोधि’ कहा गया है। बुद्ध को तथागत नाम से भी जाना जाता है जिसका मतलब होता है- सत्य है ज्ञान जिसका। बोधगया के आस-पास के ही दो बनजारे तपुस्स तथा मल्लिक को सर्वप्रथम अपना शिष्य बनाया और उपदेश दिया। भगवान बुद्ध को एशिया का पुंज (Light of Asia) कहा जता है।
उरूबेला (बोधगया) को अब छोड़कर बुद्ध ऋषिपत्तनम (सारनाथ) आ गए। सारनाथ में ही उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया था, जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ कहा गया है। इन्होंने अपने उपदेश जनसाधारण की भाषा पालि में दिए थे। इन्होंने अपने ज्यादातर उपदेश मगध, कौशाम्बी, वैशाली, कोशल एवं अन्य राजों में दिए थे। महात्मा बुद्ध ने अपने सर्वाधिक उपदेश श्रावस्ती जो कि कोशल महाजनपद की राजधानी थी यहीं पर दिए थे। इनके कुछ प्रमुख अनुयायी शासक थे- बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदायिन तथा प्रसेनजित।
महात्मा बुद्ध अपने जीवन के अंतिम समय में मल्ल गणराज्य की राजधानी कुशीनारा पहुंचे। जहाँ पर 80 वर्ष की आयु में 483 ई०पू० में इनकी मृत्यु हो गयी, जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया है। मृत्यु के पश्चात बुद्ध के शरीर के अवशेष को आठ भागों में बांटकर उस पर आठ स्तूप का निर्माण कराया गया।
उनके अनुयायी दो तरह के थे- (1) भिक्षुक और (2) उपासक। भिक्षुक वे लोग थे जो अपना पूरा घर-बार त्यागकर सन्यासी के रूप में रहते हुए भगवान बुद्ध की जो शिक्षाएं थी उसके अनुसार जीवन व्यतीत करते थे। उपासक वे लोग थे जो गृहस्थ जीवन में रहते हुए भगवान बुद्ध के नियमों का पालन करते थे।
महात्मा बुद्ध ने ‘मध्यम मार्ग’ का उपदेश देते हुए कहा कि मनुष्य को न तो कठोर तप करना चाहिए, न ज्यादा भोग-विलास में पड़ना चाहिए। अर्थात उसे बीच वाला रास्ता अपनाना चाहिए। यानी कठोर तपस्या वैसा भी मत करो कि भूखा रह जाओ दस-दस दिन तक और आपका शरीर खत्म हो जाये, और ऐसा भोग-विलास में भी मत पड़ो की बाद में आपको प्रॉब्लम होने लग जाए। तो महात्मा बुद्ध ने ‘मध्यम मार्ग’ को अपनाया था।
भगवान बुद्ध ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। यानी वे अनीश्वरवादी थे। एक चीज ध्यान में रखियेगा कि जैन धर्म में भी ईश्वर को नहीं माना जाता था, आत्मा को जैन धर्म मानते थे। लेकिन बुद्ध आत्मा में भी विश्वास नहीं करते थे। गौतम बुद्ध पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानते थे। बुद्ध के खुद के पुनर्जन्म की कथाएँ जातक नामक ग्रंथ में उल्लेखित है। ऐसा माना जाता है कि गौतम के रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध ने 550 से भी ज्यादा जन्म लिए थे। जातक ग्रंथों में भगवान बुद्ध के इन्हीं पूर्व जन्मों की कथाएं वर्णित है।
उन्होंने चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया था। ये आर्य सत्य थे- (1) संसार दुखमय है, (2) दुखों को रोका जा सकता है, (3) दुखों का कारण तृष्णा है और (4) दुखों को रोकने का तरीका है अष्टांगिक मार्ग।
अष्टांगिक मार्ग – बुद्ध ने आठ नियम दिए थे और कहा था कि आप इसका करके दुखों को रोक सकते हो। ये इस प्रकार थे-
(1) सम्यक दृष्टि – इसका मतलब हुआ आपको सत्य का ज्ञान होना चाहिए। आपको पता होना चाहिए कि दुखों का कारण क्या है? और उसे कैसे रोका जाना चाहिए।
(2) सम्यक कर्मान्त – इसका अर्थ हुआ कि जो अपने कर्म हैं उसे सही ढंग से करो, आप गलत या बुरे कर्म मत करो, हमेशा अच्छे कर्म करो।
(3) सम्यक अजीव – यानी आप जो जीविका/आजीविका कमा रहे हो, आप जो पैसे कमा रहे हो उसमें किसी का दिल नहीं दुखना चाहिए। वो अच्छे तरीके से कमाओ।
(4) सम्यक व्यायाम – आप थोड़ा बहुत अच्छी-अच्छी किताबों को पढ़ो और थोड़ा बहुत व्यायाम भी करते रहो ताकि आप बीमार भी न पड़े और आपका जीवन सुखमय रहे।
(5) सम्यक स्मृति – इसका अर्थ हुआ कि आपको सारी चीजें हमेशा याद रहनी चाहिए, यानी हमेशा याद रहना चाहिए कि हमारी जिंदगी का अंतिम उद्देश्य क्या है? आपको बीच में भटकना नहीं है।
(6) सम्यक समाधि – लगातार ये बात सोचते रहो समाधि लगाकर की हमें मोक्ष प्राप्त करना है, निर्वाण प्राप्त करना है।
(7) सम्यक वाणी – हमेशा सही विचार बोले। और आखिरी है-
(8) सम्यक संकल्प –
तो ये थे अष्टांगिक मार्ग जिसे गौतम बुद्ध ने दिया था दुखों को खत्म करने के लिए।
● बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं- बुद्ध, संघ और धम्म।
● बौद्ध धर्म का परम लक्ष्य होता है निर्वाण की प्राप्ति। निर्वाण प्राप्ति का मतलब ‘दीपक का बुझ जाना’ और दीपक का बुझ जाने का अर्थ होता है कि आपके अंदर दिमाग में जो 24 घण्टे क्वेश्चन चलते रहते हैं, वो सारे के सारे क्वेश्चन का आंसर मिल जाएं और आप शांति को प्राप्त हो जाएं। उसके बाद आप टेंशन फ्री हो जाते हो यानी बौद्ध धर्म का जो अंतिम उद्देश्य है वह है निर्वाण की प्राप्ति अर्थात दीपक का बुझ जाना।
● त्रिपिटक – सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक। जातक कथाएं सुत्तपिटक से संबंधित थे।
भगवान बुद्ध कहते थे आप मुझे भगवान मत मानिए सिर्फ मेरे आदर्शों पर चलिए, मैं जो कह रहा हूँ उसे फॉलो कीजिए। लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने उन्हें भगवान बना दिया और बाद में उनकी मूर्ति पूजा भी होने लग गयी थी। तो उनकी जो प्रथम बुद्ध मूर्ति मिलती है वो मिलती है मथुरा शैली की और सर्वाधिक बुद्ध मूर्ति मिलती है गन्धार शैली की।
बौद्ध धर्म में चार संगीतियाँ हुई थी, जो निम्नलिखित है-
बौद्ध परंपरा के अनुसार परिनिर्वाण के अनंतर ही राजगृह में प्रथम संगीति हुई थी और इस अवसर पर विनय और धर्म का संग्रह किया गया था।
दूसरी संगीति परिनिर्वाण सौ वर्ष पश्चात् वैशाली में हुई। महावंस के अनुसार उस समय मगध का राजा कालाशोक था।
- प्रथम बौद्ध संगीति -483BC - शासक - अजातशत्रु - राजगृह में - महाकस्सयप की अध्यक्षता में ।== राजा - अजातशत्रु
- दूसरी बौध्द संगीति - वैशाली , राजा - कालाशोक
- तीसरी बौध्द संगीति - पाटलिपुत्र , राजा - अशोक
- चौथी बौध्द संगीति - कुंडलवन कश्मीर, राजा - कनिष्क
- पांचवी बौध्द संगीति हर्ष के काल मे हुई जिसमें फाह्यान भी शामिल हुआ।