पंचायती राज
स्थानीय स्वशासन का अर्थ है स्थानीय लोगों द्वारा निर्वाचित निकायों द्वारा स्थानीय मामलों का प्रबंधन।
ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना करने के लिये 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के माध्यम से पंचायती राज संस्थान को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई और उन्हें देश में ग्रामीण विकास का कार्य सौंपा गया।
अपने वर्तमान स्वरूप और संरचना में पंचायती राज संस्थान ने 27 वर्ष पूरे कर लिये हैं। लेकिन विकेंद्रीकरण को आगे बढ़ाने और ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
भारत में पंचायती राज का उद्भव
भारत में पंचायत राज के इतिहास को विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से निम्नलिखित कालक्रमों में विभाजित किया जा सकता है:
वैदिक युग: प्राचीन संस्कृत शास्त्रों में 'पंचायतन' शब्द का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है एक आध्यात्मिक व्यक्ति सहित पाँच व्यक्तियों का समूह।
धीरे-धीरे ऐसे समूहों में एक आध्यात्मिक व्यक्ति को शामिल करने की अवधारणा लुप्त हो गई।
ऋग्वेद में स्थानीय स्व-इकाइयों के रूप में सभा, समिति और विदथ का उल्लेख मिलता है।
ये स्थानीय स्तर के लोकतांत्रिक निकाय थे। राजा कुछ कार्यों और निर्णयों के संबंध में इन निकायों की स्वीकृति प्राप्त किया करते थे।
महाकाव्य युग भारत के दो महान महाकाव्य काल को इंगित करता है- रामायण और महाभारत।
रामायण के अध्ययन से संकेत मिलता है कि प्रशासन दो भागों- पुर और जनपद (अर्थात् नगर और ग्राम) में विभाजित था।
राज्य में एक जाति पंचायत (Caste Panchayat) भी होती थी और जाति पंचायत द्वारा निर्वाचित व्यक्ति राजा के मंत्री-परिषद का सदस्य होता था।
महाभारत के 'शांति पर्व', कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' और मनु स्मृति से भी ग्रामों के स्थानीय स्वशासन के पर्याप्त साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
महाभारत के अनुसार, ग्राम के ऊपर 10, 20, 100 और 1,000 ग्राम समूहों की इकाइयाँ विद्यमान थीं।
'ग्रामिक' ग्राम का मुख्य अधिकारी होता था जबकि 'दशप' दस ग्रामों का प्रमुख होता था। विंश्य अधिपति, शत ग्राम अध्यक्ष और शत ग्राम पति क्रमशः 20, 100 और 1000 ग्रामों के प्रमुख होते थे।
वे स्थानीय स्तर पर कर एकत्र करते थे और अपने ग्रामों की रक्षा के लिये उत्तरदायी थे।
प्राचीन काल: कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है।
नगर को 'पुर' कहा जाता था और इसका प्रमुख 'नागरिक' होता था।
स्थानीय निकाय किसी भी राजसी हस्तक्षेप से मुक्त थे।
मौर्य तथा मौर्योत्तर काल में भी ग्राम का मुखिया वृद्धों की एक परिषद (Council of Elders) की सहायता से ग्रामीण जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता रहा।
यह प्रणाली गुप्त काल में भी बनी रही, यद्यपि नामकरण में कुछ परिवर्तन हुए; इस काल में ज़िला अधिकारी को विषयपति और ग्राम के प्रधान को ग्रामपति के रूप में जाना जाता था।
इस प्रकार, प्राचीन भारत में स्थानीय शासन की एक सुस्थापित प्रणाली विद्यमान थी जो परंपराओं और रीति-रिवाजों के एक निर्धारित रूपरेखा के आधार पर संचालित होती थी।
यहाँ यह उल्लेख करना भी महत्त्वपूर्ण है कि पंचायत के प्रमुख के रूप में यहाँ तक कि सदस्यों के रूप में भी स्त्रियों की भागीदारी का कोई संदर्भ प्राप्त नहीं होता।
मध्य काल: सल्तनत काल के दौरान दिल्ली के सुल्तानों ने अपने राज्य को प्रांतों में विभाजित किया था जिन्हें 'विलायत' कहा जाता था।
ग्राम के शासन के लिये तीन महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते थे-
1. प्रशासन के लिये मुकद्दम
2. राजस्व संग्रह के लिये पटवारी
3. पंचों की सहायता से विवादों के समाधान के लिये चौधरी
ग्रामों को स्वशासन के संबंध में अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर पर्याप्त शक्तियाँ प्राप्त थी।
मध्य काल में मुगल शासन के तहत जातिवाद और शासन की सामंतवादी प्रणाली ने धीरे-धीरे ग्रामीण स्वशासन को नष्ट कर दिया।
पुनः यह उल्लेखनीय है कि मध्य काल में भी स्थानीय ग्राम प्रशासन में स्त्रियों की भागीदारी का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
ब्रिटिश काल: ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ग्राम पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त हो गई और वे कमज़ोर हो गए।
वर्ष 1870 में भारत में प्रतिनिधि स्थानीय संस्थाओं का उद्भव हुआ।
वर्ष 1870 के प्रसिद्ध मेयो प्रस्ताव (Mayo’s resolution) ने स्थानीय संस्थाओं की शक्तियों और उत्तरदायित्वों में वृद्धि कर उनके विकास को गति दी।
वर्ष 1870 में ही शहरी नगरपालिकाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया।
वर्ष 1857 के विद्रोह ने शाही वित्त पर भारी दबाव बना दिया था और स्थानीय सेवा को स्थानीय कराधान से वित्तपोषित करना आवश्यक माना गया। इस प्रकार यह राजकोषीय मज़बूरी थी कि विकेंद्रीकरण पर लॉर्ड मेयो के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया।
मेयो द्वारा उठाए गए कदमों का अनुसरण करते हुए लॉर्ड रिपन ने वर्ष 1882 में इन स्थानीय संस्थाओं को उनका अत्यंत आवश्यक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान किया।
सभी बोर्डों (जो उस समय अस्तित्व में थे) में निर्वाचित गैर-अधिकारियों के दो-तिहाई बहुमत को अनिवार्य कर दिया गया और इन निकायों के अध्यक्ष को भी निर्वाचित गैर-अधिकारियों में से ही चुना जाना था।
इसे भारत में स्थानीय स्वशासन का मैग्ना कार्टा माना जाता है।
वर्ष 1907 में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को सी.ई.एच. होबहाउस की अध्यक्षता में ‘केंद्रीकरण पर रॉयल कमीशन’ (Royal Commission on Centralisation) के गठन से अत्यंत बल मिला।
इस कमीशन/आयोग ने ग्राम स्तर पर पंचायतों के महत्त्व को चिह्नित किया।
इसी पृष्ठभूमि में वर्ष 1919 के 'मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार' ने स्थानीय सरकार के विषय को प्रांतों के अधिकार क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया।
इस सुधार में यह अनुशंसा भी की गई कि जहाँ तक संभव हो स्थानीय निकायों के पास एक पूर्ण नियंत्रण की क्षमता होनी चाहिये और बाह्य नियंत्रण से उन्हें संभवतः पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिये।
इन पंचायतों के दायरे में ग्रामों की सीमित संख्या ही थी और इनके कार्य भी सीमित थे; संगठनात्मक और राजकोषीय बाधाओं के कारण ये ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन की लोकतांत्रिक और जीवंत संस्थाओं के रूप में परिणत न हो सकीं।
फिर भी वर्ष 1925 तक आठ प्रांतों ने पंचायत अधिनियमों को पारित कर लिया था और वर्ष 1926 तक छह देशी रियासतों ने भी पंचायत कानून पारित कर लिये थे। स्थानीय निकायों को अधिक शक्तियाँ दी गईं और करारोपण के अधिकारों को कम कर दिया गया। लेकिन इनसे स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
स्वातंत्र्योत्तर काल (स्वतंत्रता के बाद की अवधि): संविधान के अनुच्छेद 40 में पंचायतों का उल्लेख किया गया और अनुच्छेद 246 के माध्यम से स्थानीय स्वशासन से संबंधित किसी भी विषय के संबंध में कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानमंडल को सौंपा गया।
लेकिन संविधान में पंचायतों के इस समावेशन को तत्कालीन नीति-निर्माताओं की सर्वसम्मति प्राप्त नहीं थी और इसका सबसे प्रबल विरोध स्वयं संविधान निर्माता बी.आर. अंबेडकर ने किया था।
ग्राम पंचायत के समर्थकों और विरोधियों के बीच अत्यधिक विमर्श के बाद ही अंततः पंचायतों को संविधान में स्थान मिला और इसे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में शामिल किया गया।
चूँकि नीति निदेशक सिद्धांत बाध्यकारी सिद्धांत नहीं हैं, परिणामस्वरूप पूरे देश में इन निकायों के लिये सार्वभौमिक या एकसमान संरचना का अभाव रहा।
स्वतंत्रता के बाद एक विकास पहल के रूप में भारत ने 2 अक्तूबर, 1952 को गांधी जयंती की पूर्वसंध्या पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community Development Programmes- CDP) को लागू किया जिसकी वृहत प्रेरणा अमेरीकी विशेषज्ञ अल्बर्ट मेयर द्वारा शुरू की गई इटावा परियोजना (Etawah Project) से प्राप्त हुई थी।
इसमें ग्रामीण विकास की लगभग सभी गतिविधियों को शामिल किया गया जिन्हें लोगों की भागीदारी के साथ ग्राम पंचायतों की सहायता से लागू किया जाना था।
वर्ष 1953 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के सहयोग के लिये राष्ट्रीय विस्तार सेवा (National Extension Service) की भी शुरुआत की गई। लेकिन यह कार्यक्रम भी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका न निभा सका।
CDP की विफलता के कई कारण थे, जैसे नौकरशाही की बाधाएँ व अत्यधिक राजनीति, लोगों की भागीदारी में कमी, प्रशिक्षित एवं योग्य कर्मचारियों की कमी और विशेष रूप से CDP को लागू करने में ग्राम पंचायतों सहित स्थानीय निकायों की रुचि का अभाव।
वर्ष 1957 में राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council) ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम के कार्यकरण पर विचार करने हेतु बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।
समिति ने पाया कि CDP की विफलता का प्रमुख कारण लोगों की भागीदारी में कमी थी।
समिति ने त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं का सुझाव दिया-
1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत
2. प्रखंड (ब्लॉक) स्तर पर पंचायत समिति
3. ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की यह योजना सर्वप्रथम 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में शुरू की गई।
आंध्र प्रदेश में यह योजना 1 नवंबर, 1959 को शुरू की गई। इस संबंध में आवश्यक विधान भी पारित कर लिये गए और असम, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा एवं पंजाब में भी इसे लागू किया गया।
वर्ष 1977 में अशोक मेहता समिति की नियुक्ति ने पंचायत राज की अवधारणाओं और रीतियों में नए दृष्टिकोण का सूत्रपात किया।
समिति ने द्विस्तरीय पंचायत राज संरचना की अनुशंसा की जिसमें ज़िला परिषद और मंडल पंचायत शामिल थे।
योजना विशेषज्ञता के उपयोग और प्रशासनिक सहायता की सुनिश्चितता के लिये राज्य स्तर से नीचे ज़िले को विकेंद्रीकरण के प्रथम बिंदु के रूप में रखने की अनुशंसा की गई थी।
समिति की अनुशंसा के आधार पर कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने इस व्यवस्था को प्रभावी रूप से लागू किया।
कालांतर में पंचायतों के पुनरुद्धार और इन्हें नई ऊर्जा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने विभिन्न समितियों की नियुक्ति की। इनमें से कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण समितियाँ थीं-
हनुमंत राव समिति (1983)
जी.वी.के. राव समिति (1985)
एल.एम. सिंघवी समिति (1986)
केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग (1988)
पी.के. थुंगन समिति (1989)
हरलाल सिंह खर्रा समिति (1990)
जी.वी.के राव समिति (1985) ने ज़िले को योजना की बुनियादी इकाई बनाने और नियमित चुनाव आयोजित कराने की सिफारिश की जबकि एल.एम. सिंघवी ने पंचायतों को सशक्त करने के लिये उन्हें संवैधानिक दर्जा प्रदान करने तथा अधिक वित्तीय संसाधन सौंपने की सिफारिश की।
संशोधन का चरण 64वें संशोधन विधेयक (1989) के साथ शुरू हुआ जिसे राजीव गांधी सरकार द्वारा पंचायत राज संस्थाओं को सशक्त बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया था लेकिन यह विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं हो सका।
संविधान (74वाँ संशोधन) विधेयक (पंचायत राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं के लिये एक संयुक्त विधेयक) वर्ष 1990 में प्रस्तुत किया गया था लेकिन इसे कभी सदन में चर्चा के लिये नहीं लाया गया।
प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल के दौरान सितंबर 1991 में 72वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में एक व्यापक संशोधन प्रस्तुत किया गया।
73वें और 74वें संविधान संशोधन को दिसंबर, 1992 में संसद द्वारा पारित कर दिया गया। इन संशोधनों के माध्यम से ग्रामीण और शहरी भारत में स्थानीय स्वशासन की नींव डाली गई।
24 अप्रैल, 1993 को संविधान (73वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 और 1 जून, 1993 को संविधान (74वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 के रूप में ये कानून प्रवर्तित हुए।
73वें व 74वें संशोधन की मुख्य विशेषताएँ
इन संशोधनों ने संविधान में दो नए भागों को शामिल किया- भाग IX 'पंचायत' (जिसे 73वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया) और भाग IXA 'नगरपालिकाएँ' (जिसे 74वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया)।
लोकतांत्रिक प्रणाली की बुनियादी इकाइयों के रूप में ग्राम सभाओं (ग्राम) और वार्ड समितियों (नगर पालिका) को रखा गया जिनमें मतदाता के रूप में पंजीकृत सभी वयस्क सदस्य शामिल होते हैं।
उन राज्यों को छोड़कर जिनकी जनसंख्या 20 लाख से कम हो ग्राम, मध्यवर्ती (प्रखंड/तालुक/मंडल) और ज़िला स्तरों पर पंचायतों की त्रि-स्तरीय प्रणाली लागू की गई है (अनुच्छेद 243B)।
सभी स्तरों पर सीटों को प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरा जाना है [अनुच्छेद 243C(2)]।
अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिये सीटों का आरक्षण किया गया है तथा सभी स्तरों पर पंचायतों के अध्यक्ष के पद भी जनसंख्या में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अनुपात के आधार पर आरक्षित किये गए हैं।
उपलब्ध सीटों की कुल संख्या में से एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित हैं।
SCs और STs के लिये आरक्षित स्थानों में से एक तिहाई सीटें इन वर्गों की महिलाओं के लिये आरक्षित हैं।
सभी स्तरों पर अध्यक्षों के एक तिहाई पद भी महिलाओं के लिये आरक्षित हैं (अनुच्छेद 243D)।
प्रतिनिधियों के लिये एक समान पाँच वर्षीय कार्यकाल निर्धारित किया गया है और कार्यकाल की समाप्ति से पहले नए निकायों के गठन के लिये निर्वाचन प्रक्रिया पूरी करना आवश्यक है।
निकायों के विघटन की स्थिति में छह माह के अंदर निर्वाचन कराना अनिवार्य है (अनुच्छेद 243E)।
मतदाता सूची के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के लिये प्रत्येक राज्य में स्वतंत्र चुनाव आयोग होंगे (अनुच्छेद 243K)।
आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनाएँ तैयार करने और इन योजनाओं (इनके अंतर्गत वे योजनाएँ भी शामिल हैं जो ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के संबंध में हैं) को कार्यान्वित करने के लिये पंचायतों को शक्ति व प्राधिकार प्रदान करने के लिये राज्य विधान मंडल विधि बना सकेगा (अनुच्छेद 243G)।
पंचायतों और नगर पालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करने के लिये 74वें संशोधन में एक ज़िला योजना समिति (District Planning Committee) का प्रावधान किया गया है (अनुच्छेद 243ZD)।
राज्य सरकारों से बजटीय आवंटन, कुछ करों के राजस्व की साझेदारी, करों का संग्रहण और इससे प्राप्त राजस्व का अवधारण, केंद्र सरकार के कार्यक्रम एवं अनुदान, केंद्रीय वित्त आयोग के अनुदान आदि के संबंध में उपबंध किये गए हैं (अनुच्छेद 243H)।
प्रत्येक राज्य में एक वित्त आयोग का गठन करना ताकि उन सिद्धांतों का निर्धारण किया जा सके जिनके आधार पर पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाएगी (अनुच्छेद 243I)।
संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची पंचायती राज निकायों के दायरे में 29 कार्यों को शामिल करती है।
निम्नलिखित क्षेत्रों को सामाजिक-सांस्कृतिक और प्रशासनिक कारणों से अधिनियम के प्रवर्तन से छूट दी गई है:
आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और राजस्थान राज्यों में पाँचवीं अनुसूची के तहत सूचीबद्ध अनुसूचित क्षेत्र।
नगालैंड, मेघालय और मिज़ोरम राज्य।
पश्चिम बंगाल राज्य में दार्जिलिंग ज़िले के पहाड़ी क्षेत्र जिनके लिये दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल मौजूद है।
संविधान संशोधन अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप भारत सरकार द्वारा पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 [The Provisions of the Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) Act-PESA], पारित किया गया है।
27 वर्ष पूरे होने पर पंचायती राज संस्थाओं का मूल्यांकन
पंचायती राज संस्थाओं ने 27 वर्षों की अपनी यात्रा में उल्लेखनीय सफलता भी पाई है और भारी विफलता भी झेली है जिनका मूल्यांकन उनके द्वारा तय किये गए लक्ष्यों के आधार पर किया जाता है।
जहाँ पंचायती राज संस्थाएँ ज़मीनी स्तर पर सरकार तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के एक और स्तर के निर्माण में सफल रही हैं वहीं बेहतर प्रशासन प्रदान करने के मामले में वे विफल रही हैं।
देश में लगभग 250,000 पंचायती राज संस्थाएँ एवं शहरी स्थानीय निकाय और तीन मिलियन से अधिक निर्वाचित स्थानीय स्वशासन प्रतिनिधि मौजूद हैं।
73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा यह अनिवार्य किया गया है कि स्थानीय निकायों के कुल सीटों में से कम-से-कम एक तिहाई तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित हों। भारत में निर्वाचित पदों पर आसीन महिलाओं की संख्या विश्व में सर्वाधिक है (1.4 मिलियन)। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिये भी स्थानों और सरपंच/प्रधान के पदों का आरक्षण किया गया है।
पंचायती राज संस्थाओं पर विचार करते हुए किये गए अध्ययन से पता चला है कि स्थानीय सरकारों में महिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व से महिलाओं के आगे आने और अपराधों की रिपोर्ट दर्ज कराने की संभावनाओं में वृद्धि हुई है।
महिला सरपंचों वाले ज़िलों में विशेष रूप से पेयजल, सार्वजनिक सुविधाओं आदि में वृहत निवेश किया गया है।
इसके अलावा, राज्यों ने विभिन्न शक्ति हस्तांतरण प्रावधानों को वैधानिक सुरक्षा प्रदान की है जिन्होंने स्थानीय सरकारों को व्यापक रूप से सशक्त बनाया है।
उत्तरोत्तर केंद्रीय वित्त आयोगों ने स्थानीय निकायों के लिये धन आवंटन में उल्लेखनीय वृद्धि की है इसके अलावा प्रदत्त अनुदानों में भी वृद्धि की गई है।
15वाँ वित्त आयोग स्थानीय सरकारों के लिये आवंटन में और अधिक वृद्धि पर विचार कर रहा है ताकि इन्हें किये जाने वाले आवंटन को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाया जा सके।
संबंधित मुद्दे
पर्याप्त धन की कमी पंचायतों के लिये समस्या का एक विषय है। पंचायतों के क्षेत्राधिकार में वृद्धि किये की आवश्यकता है ताकि वे स्वयं का धन जुटाने में सक्षम हो सकें।
पंचायतों के कार्यकलाप में क्षेत्रीय सांसदों और विधायकों के हस्तक्षेप ने ही उनके कार्य निष्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है।
73वें संविधान संशोधन ने केवल स्थानीय स्वशासी निकायों के गठन को अनिवार्य बनाया जबकि उनकी शक्तियों, कार्यो व वित्तपोषण का उत्तरदायित्व राज्य विधानमंडलों को सौंप दिया दिया, जिसके परिणामस्वरूप पंचायती राज संस्थाओं की विफलता की स्थिति बनी है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और जल के प्रावधान जैसे विभिन्न शासन कार्यों के हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं बनाया गया। इसके बजाय संशोधन ने उन कार्यों को सूचीबद्ध किया जो हस्तांतरित किये जा सकते थे और कार्यों के हस्तांतरण के उत्तरदायित्व को राज्य विधानमंडल पर छोड़ दिया।
पिछले 27 वर्षों में प्राधिकार और कार्यों का हस्तांतरण बहुत कम हुआ है।
चूँकि इन कार्यों का कभी भी हस्तांतरण नहीं किया गया इसलिये इन कार्यों के लिये राज्य के कार्यकारी प्राधिकारों की संख्या में वृद्धि होती गई। इसका सबसे सामान्य उदाहरण राज्य जल बोर्डों की खराब स्थिति हैं।
संशोधन की सबसे प्रमुख विफलता पंचायत राज संस्थाओं के लिये वित्त की कमी पर विचार नहीं करना है। स्थानीय सरकारें या तो स्थानीय करों के माध्यम से अपना राजस्व बढ़ा सकती हैं अथवा वे अंतर-सरकारी हस्तांतरण पर निर्भर हैं।
उपरोक्त के अलावा पंचायती राज संस्थाओं के दायरे में आने वाले विषयों पर कर लगाने की शक्ति को भी विशेष रूप से राज्य विधायिका द्वारा अधिकृत किया जाता है। 73वें संविधान संशोधन ने करारोपण की शक्ति के निर्धारण का उत्तरदायित्त्व राज्य विधानमंडल को सौंप दिया और अधिकांश राज्यों ने इस शक्ति के हस्तांतरण में कोई रुचि नहीं दिखाई।
राजस्व सृजन का एक दूसरा माध्यम अंतर-सरकारी हस्तांतरण है, जहाँ राज्य सरकारें अपने राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत पंचायती राज संस्थाओं को सौंपती हैं। संवैधानिक संशोधन ने राज्य और स्थानीय सरकारों के बीच राजस्व की साझेदारी की सिफारिश करने के लिये राज्य वित्त आयोग का उपबंध किया। लेकिन ये केवल सिफारिशें होती हैं और राज्य सरकारें इन्हें मानने के लिये बाध्य नहीं हैं।
यद्यपि वित्त आयोगों ने प्रत्येक स्तर पर धन के अधिकाधिक हस्तांतरण का समर्थन किया है, लेकिन राज्यों द्वारा धन के हस्तांतरण के संदर्भ में बहुत कम कार्रवाई की गई है।
पंचायती राज्य संस्थाएँ उन परियोजनाओं को अपनाने के प्रति अनिच्छुक होती हैं जिनमें किसी भी सार्थक वित्तीय परिव्यय की आवश्यकता होती है और प्रायः अत्यंत बुनियादी स्थानीय प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में भी असमर्थ होती हैं।
पंचायती राज्य संस्थाएँ संरचनात्मक कमियों से भी ग्रस्त हैं; उनके पास सचिव स्तर का समर्थन और निचले स्तर के तकनीकी ज्ञान का अभाव है जो उन्हें उर्ध्वगामी योजना के समूहन से बाधित करता है।
पंचायती राज संस्थाओं में तदर्थवाद (Adhocism) की उपस्थिति है, अर्थात् ग्राम सभा और ग्राम समितियों की बैठक में एजेंडे की स्पष्ट व्यवस्था की कमी होती है और कोई उपयुक्त संरचना मौजूद नहीं है।
हालाँकि महिलाओं और SC/ST समुदाय को 73वें संशोधन द्वारा अनिवार्य आरक्षण के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं में प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ है लेकिन महिलाओं और SC/ST प्रतिनिधियों के मामले में क्रमशः पंच-पति और प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व की उपस्थिति जैसी समस्याएँ भी देखने को मिलती है।
पंचायती राज संस्थाओं की संवैधानिक व्यवस्था के 27 वर्ष बाद भी जवाबदेही व्यवस्था अत्यंत कमज़ोर बनी हुई है।
कार्यों तथा निधियों के विभाजन में अस्पष्टता की समस्या ने शक्तियों को राज्यों के पास संकेंद्रित रखा है और इस प्रकार ज़मीनी स्तर के मुद्दों के प्रति अधिक जागरूक एवं संवेदनशील निर्वाचित प्रतिनिधियों को नियंत्रण प्राप्त करने से बाधित कर रखा है।
सुझाव
वास्तविक राजकोषीय संघवाद अर्थात् वित्तीय उत्तरदायित्व के साथ वित्तीय स्वायत्तता एक दीर्घकालिक समाधान प्रदान कर सकती है और इनके बिना पंचायती राज संस्थाएँ केवल एक महँगी विफलता ही साबित होगी।
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की 6ठीं रिपोर्ट ('स्थानीय शासन- भविष्य की ओर एक प्रेरणादायक यात्रा'- Local Governance- An Inspiring Journey into the Future) में सिफारिश की गई थी कि सरकार के प्रत्येक स्तर के कार्यों का स्पष्ट रूप से सीमांकन होना चाहिये।
राज्यों को 'एक्टिविटी मैपिंग’ की अवधारणा को अपनाना चाहिये जहाँ प्रत्येक राज्य अनुसूची XI में सूचीबद्ध विषयों के संबंध में सरकार के विभिन्न स्तरों के लिये उत्तरदायित्वों और भूमिकाओं को स्पष्ट रूप से इंगित करता है।
जनता के प्रति जवाबदेहिता के आधार पर विषयों को अलग-अलग स्तरों पर विभाजित कर सौंपा जाना चाहिये।
कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं लेकिन समग्र प्रगति अत्यधिक असमान रही है।
विशेष रूप से ज़िला स्तर पर उर्ध्वगामी योजना निर्माण की आवश्यकता है जो ग्राम सभा से प्राप्त ज़मीनी इनपुट पर आधारित हो।
कर्नाटक ने पंचायतों के लिये एक अलग नौकरशाही संवर्ग/कैडर का निर्माण किया है ताकि अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति की व्यवस्था से मुक्ति पाई जा सके जहाँ ये अधिकारी प्रायः निर्वाचित प्रतिनिधियों पर अधिभावी बने रहते हैं।
स्थानीय स्वशासन के वास्तविक चरित्र को मज़बूत करने के लिये अन्य राज्यों में भी इस व्यवस्था को अपनाया जाना चाहिये।
केंद्र को भी राज्यों को आर्थिक रूप से प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि राज्य कार्य, वित्त और कर्मचारियों के मामले में पंचायतों की ओर शक्ति के प्रभावी हस्तांतरण के लिये प्रेरित हों।
स्थानीय प्रतिनिधियों में विशेषज्ञता के विकास के लिये उन्हें प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये ताकि वे नीतियों एवं कार्यक्रमों के नियोजन और कार्यान्वयन में अधिक योगदान कर सकें।
प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व की समस्या को हल करने के लिये राजनीतिक सशक्तीकरण से पहले सामाजिक सशक्तीकरण के मार्ग का अनुसरण करना होगा।
हाल ही में राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों ने पंचायत चुनावों के प्रत्याशियों के लिये कुछ न्यूनतम योग्यता मानक तय किये हैं। इस तरह के योग्यता मानक शासन तंत्र की प्रभावशीलता में सुधार लाने में सहायता कर सकते हैं।
ऐसे योग्यता मानक विधायकों और सांसदों के लिये भी लागू होने चाहिये और इस दिशा में सरकार को सार्वभौमिक शिक्षा के लिये किये जा रहे प्रयासों को तीव्रता प्रदान करनी चाहिये।
यह सुनिश्चित करने के लिये स्पष्ट तंत्र होना चाहिये कि राज्य संवैधानिक प्रावधानों का पालन करते हैं अथवा नहीं; विशेष रूप से राज्य वित्त आयोगों (SFCs) की सिफारिशों की स्वीकृति और उनके कार्यान्वयन के मामले में यह अनुपालन आवश्यक है।
आगे की राह
सामुदायिक, सरकारी और अन्य विकासात्मक एजेंसियों के माध्यम से प्रभावी संयोजन/सहलग्नता द्वारा सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य स्थिति में सुधार लाकर ग्रामीण लाभार्थियों के जीवन में एक समग्र परिवर्तन लाना इस समय की तात्कालिक आवश्यकता है।
सरकार को लोकतंत्र, सामाजिक समावेशन और सहकारी संघवाद के हित में उपचारात्मक कार्रवाई करनी चाहिये।
स्थायी विकेंद्रीकरण और समर्थन के लिये की जनता की माँग को विकेंद्रीकरण के एजेंडे पर केंद्रित होना चाहिये। विकेंद्रीकरण की माँग को समायोजित करने के लिये एक ढाँचे के विकास की आवश्यकता है।
कार्य समनुदेशन में स्पष्टता का होना महत्त्वपूर्ण है और स्थानीय सरकारों के पास वित्त के स्पष्ट एवं स्वतंत्र स्रोत होने चाहिये।
"यदि हम पंचायत राज यानी सच्चे लोकतंत्र के अपने सपने को साकार होते देखेंगे तो हम सबसे दीन और निम्नतम भारतीय को भी भूमि के सबसे प्रभावशाली भारतीय के ही समान भारत के शासक के रूप में देखेंगे।"
- महात्मा गांधी
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Panchayati Raj
Local self-government means the management of local affairs by bodies elected by the local people.
The Panchayati Raj Institute was given constitutional status through the 73rd Constitutional Amendment Act, 1992 to establish democracy at the grassroots level and was entrusted with the task of rural development in the country.
Panchayati Raj Institute has completed 27 years in its present form and structure. But much more remains to be done to advance decentralization and strengthen democracy at the grassroots level.
Emergence of Panchayati Raj in India
From the analytical point of view the history of Panchayat Raj in India can be divided into the following chronologies:
Vedic Age: The word 'Panchayatan' is mentioned in ancient Sanskrit scriptures, which means a group of five persons including a spiritual person.
Gradually the concept of including a spiritual person in such groups disappeared.
The Rig Veda finds mention of sabha, samiti and vidatha as local self-units.
These were local level democratic bodies. The kings used to get the approval of these bodies in relation to certain actions and decisions.
The epic era indicates two great epic periods of India - the Ramayana and the Mahabharata.
Studies of the Ramayana indicate that the administration was divided into two parts- Pur and Janpad (ie Nagar and Gram).
There was also a Caste Panchayat in the state and a person elected by a caste panchayat was a member of the king's council of ministers.
Adequate evidence of local self-governance of the villages is also found from the 'Shanti Parva' of Mahabharata, 'Arthashastra' of Kautilya and Manu Smriti.
According to the Mahabharata, there were units of 10, 20, 100 and 1,000 village groups above the village.
'Gramik' was the chief officer of the village while 'Dasap' was the chief of ten villages. The Governor of the State, the centenary village president and the centenary husband were the heads of 20, 100 and 1000 villages respectively.
They collected taxes at the local level and were responsible for protecting their villages.
Ancient times: Gram Panchayats are mentioned in Kautilya's Arthashastra.
The city was called 'Pur' and its head was 'citizen'.
The local bodies were free from any royal interference.
Even in the Maurya and Post-Mauryan periods, the village head continued to play an important role in rural life with the help of a Council of Elders.
This system persisted even during the Gupta period, although there were some changes in nomenclature; During this period the district officer was known as the subject and the head of the village as the gramapati.
Thus, there existed a well-established system of local governance in ancient India which operated on the basis of a defined framework of traditions and customs.
It is also important to mention here that there is no reference to the participation of women as heads of panchayats, even as members.
Medieval period: During the Sultanate period the Sultans of Delhi divided their kingdom into provinces which were called 'Vilayat'.
There were three important officers for the governance of the village.
1. Trial for administration
2. Patwari for revenue collection
3. Chaudhary to resolve disputes with the help of Panchs
Villages had sufficient powers within their jurisdiction regarding self-government.
Casteism and feudal system of governance under the Mughal rule in the Middle Ages gradually destroyed rural self-government.
Again, it is noteworthy that no mention is received of the participation of women in the local village administration even in the medieval period.
British period: The autonomy of the gram panchayats ended and weakened under British rule.
Representative local institutions arose in the year 1870 in India.
The famous Mayo’s resolution of the year 1870 increased the powers and responsibilities of local institutions and accelerated their development.
In the year 1870 itself, the concept of elected representatives was introduced in urban municipalities.
The revolt of 1857 put a lot of pressure on the imperial finances and it was considered necessary to finance the local service with local taxation. Thus it was the fiscal strength that Lord Mayo's proposal on decentralization was accepted.
Following the steps taken by Mayo, Lord Ripon gave these local institutions their much needed democratic structure in the year 1882.
A two-thirds majority of elected non-officials was mandated on all boards (which existed at the time) and the president of these bodies was also to be elected from among elected non-officials.
It is considered the Magna Carta of local self-government in India.
In the year 1907, local self-government institutions were awarded C.E.H. The formation of the Royal Commission on Centralisation, under the chairmanship of Hobhouse, gained immense strength.
This commission / commission marked the importance of panchayats at the village level.
It was in this background that the 'Montague-Chelmsford Reforms' of 1919 shifted the subject of local government to the jurisdiction of the provinces.
In this reform, it was also recommended that as far as possible local bodies should have full control capacity and they should have complete freedom from external control.
These panchayats had a limited number of villages and their functions were also limited; Due to organizational and fiscal constraints, they could not transform into rural, democratic and vibrant institutions of local self-government.
However, by the year 1925, eight provinces had passed the Panchayat Acts and by the year 1926, six princely states had also passed the Panchayat Acts. The local bodies were given more powers and the taxation rights were reduced. But there was no specific change in the status of local self-government institutions.
Post-independence period (post-independence period): Panchayats were mentioned in Article 40 of the Constitution and through Article 246 the State Legislature was empowered to make laws in relation to any subject related to local self-government.
But this inclusion of panchayats in the constitution was not received by the consensus of the then policy-makers and the most vehement opposition to it was the constitution-maker himself. Ambedkar did.
It was only after much discussion between the supporters and opponents of the Gram Panchayat that the Panchayats finally got a place in the Constitution and it was included in Article 40 under the Directive Principles of Policy of the State.
As the Directive Principles of Policy are not binding principles, as a result, there is a lack of universal or uniform structure for these bodies throughout the country.
As a development initiative after Independence, India implemented the Community Development Program (CDP) on October 2, 1952, on the eve of Gandhi Jayanti, whose larger inspiration was the Etawah Project, launched by American expert Albert Mayer. ).
It covered almost all the activities of rural development which had to be implemented with the help of Gram Panchayats with people's participation.
The National Extension Service was also started in the year 1953 to support the Community Development Program. But this program too could not play an important role.
There were several reasons for the failure of the CDP, such as bureaucratic hurdles and excessive politics, lack of people's participation, lack of trained and qualified staff, and in particular the lack of interest of local bodies including gram panchayats in implementing CDP.
In 1957, the National Development Council set up a committee under the chairmanship of Balwant Rai Mehta to consider the working of the community development program.
The committee found that the major reason for the failure of CDP was lack of participation.
The committee suggested three-tier Panchayati Raj Institutions-
1. Gram Panchayat at village level
2. Panchayat Samiti at Block level
3. District Council at district level
This scheme of democratic decentralization was first introduced in Rajasthan on 2 October 1959.
The scheme was launched on 1 November 1959 in Andhra Pradesh. Necessary legislation was also passed in this regard and it was also implemented in Assam, Gujarat, Karnataka, Madhya Pradesh, Maharashtra, Odisha and Punjab.
The appointment of the Ashok Mehta Committee in the year 1977 gave a new perspective to the concepts and practices of Panchayat Raj.
The committee recommended a two-tier Panchayat Raj structure comprising the District Council and the Mandal Panchayat.
It was recommended to place the district below the state level as the first point of decentralization to ensure the use of planning expertise and administrative support.
Based on the recommendation of the committee, some states like Karnataka implemented this system effectively.
Later, the Government of India appointed various committees for the purpose of revival of Panchayats and to provide new energy to them.
Some of these most important committees were-
Hanumantha Rao Committee (1983)
GVK Rao Committee (1985)
Lm Singhvi Committee (1986)
Sarkaria Commission on Center-State Relations (1988)
PK Thungan Committee (1989)
Harlal Singh Kharra Committee (1990)
The GVK Rao Committee (1985) recommended making the district the basic unit of planning and holding regular elections while L.M. Singhvi recommended giving constitutional status to the Panchayats and empowering them with more financial resources.
The phase of amendment began with the 64th Amendment Bill (1989) which was introduced by the Rajiv Gandhi government with the objective of empowering panchayat raj institutions but the bill could not be passed in the Rajya Sabha.
The Constitution (74th Amendment) Bill (a joint bill for Panchayat Raj Institutions and Municipalities) was introduced in the year 1990 but it was never brought for discussion in the House.
Prime Minister P.V. During the tenure of Narasimha Rao, a comprehensive amendment was introduced in September 1991 as the 72nd Constitution Amendment Bill.
The 73rd and 74th constitutional amendments were passed by the Parliament in December 1992. These amendments laid the foundation for local self-government in rural and urban India.
These laws came into force on 24 April 1993, as the Constitution (73rd Amendment) Act, 1992 and on 1 June 1993, as the Constitution (74th Amendment) Act, 1992.
Key features of 73rd and 74th amendments
These amendments added two new parts to the Constitution - Part IX 'Panchayats' (added by the 73rd Amendment) and Part IXA 'Municipalities' (added by the 74th Amendment).
Gram sabhas (village) and ward committees (municipalities) were placed as the basic units of the democratic system consisting of all adult members registered as voters.
A three-tier system of panchayats has been implemented at the village, intermediate (block / taluk / mandal) and district levels except in those states whose population is less than 20 lakhs (Article 243B).
Seats at all levels are to be filled by direct election [Article 243C (2)].
Reservation of seats has been done for Scheduled Castes (SCs) and Scheduled Tribes (STs) and the posts of the Chairperson of Panchayats at all levels have also been reserved on the basis of proportion of Scheduled Castes and Scheduled Tribes in the population.
One third of the total number of seats available are reserved for women.
One-third of the seats reserved for SCs and STs are reserved for women of these classes.
One-third of the posts of presidents at all levels are also reserved for women (Article 243D).
An equal five-year term has been fixed for the delegates and it is necessary to complete the election process for the formation of new bodies before the end of the term.
In the event of dissolution of bodies, it is compulsory to hold elections within six months (Article 243E).
There will be independent Election Commissions in each state for the superintendence, direction and control of electoral rolls (Article 243K).
State Legislature Law to provide power and authority to the Panchayats to prepare plans for economic development and social justice and to implement these plans (including those which are in relation to the subjects listed in the Eleventh Schedule). Can make (Article 243G).
In order to consolidate the plans prepared by the Panchayats and Municipalities, the 74th Amendment provides for a District Planning Committee (Article 243ZD).
Provisions have been made in relation to budgetary allocation from State Governments, sharing of revenue of certain taxes, collection of taxes and retention of revenue derived from it, Central Government programs and grants, Central Finance Commission grants etc. (Article 243H).
To set up a Finance Commission in each state to determine the principles on which the availability of adequate financial resources for the Panchayats and Municipalities will be ensured (Article 243I).
The eleventh schedule of the constitution covers 29 functions within the purview of Panchayati Raj bodies.
The following areas are exempted from the enforcement of the Act for socio-cultural and administrative reasons:
Scheduled areas listed under the Fifth Schedule in the states of Andhra Pradesh, Bihar, Gujarat, Himachal Pradesh, Madhya Pradesh, Maharashtra, Orissa and Rajasthan.
Nagaland, Meghalaya and Mizoram states.
The hill areas of Darjeeling district in the state of West Bengal for which Darjeeling Gorkha Hill Council exists.
The provisions of the Panchayats (Extension to Scheduled Areas) Act, 1996 [The Provisions of the Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) Act-PESA], have been passed by the Government of India in line with the provisions of the Constitution Amendment Act.
Evaluation of Panchayati Raj Institutions on completion of 27 years
Related issues
Lack of sufficient funds is a problem for panchayats. There is a need to increase the jurisdiction of panchayats so that they can be able to raise their own funds.
The interference of regional MPs and MLAs in the functioning of Panchayats has adversely affected their performance.
The 73rd Constitutional Amendment only mandated the formation of local autonomous bodies while delegating their powers, functions and financing to the state legislatures, resulting in the failure of Panchayati Raj institutions.
Transfer of various governance functions like education, health, sanitation and provision of water were not made mandatory. Instead the amendment listed the functions that could be transferred and left the responsibility of the transfer of functions to the state legislature.
In the last 27 years, there has been very little transfer of authority and functions.
Since these works were never transferred, the number of executive authorities of the state increased for these works. The most common example of this is the poor state of the state water boards.
The main failure of the amendment is not to consider the lack of finance for Panchayat Raj Institutions. Local governments can either increase their revenue through local taxes or they are dependent on inter-governmental transfers.
Apart from the above, the power to levy tax on subjects falling within the purview of Panchayati Raj Institutions is also specifically authorized by the state legislature. The 73rd Constitutional Amendment delegated the responsibility of determining the power of taxation to the State Legislature and most states showed no interest in the transfer of this power.
Another means of revenue generation is inter-governmental transfer, where state governments hand over a certain percentage of their revenue to panchayati raj institutions. The constitutional amendment provided the State Finance Commission to recommend revenue sharing between state and local governments. But these are only recommendations and the state governments are not bound to follow them.
Although the Finance Commissions have supported maximum transfer of funds at every level, very little action has been taken by the States in terms of transfer of funds.
Panchayati state institutions are reluctant to undertake projects that require any meaningful financial outlay and are often unable to meet even the most basic local administrative requirements.
Panchayati state institutions also suffer from structural deficiencies; He lacks secretary-level support and lower-level technical knowledge that hinders him from agglomeration of upward planning.
There is presence of Adhocism in Panchayati Raj Institutions, that is, the meeting of Gram Sabha and Village Committees lacks clear system of agenda and no suitable structure exists.
Although women and SC / ST community got representation in Panchayati Raj Institutions through compulsory reservation by 73rd amendment, there are also problems like presence of Panch Pati and proxy representation in case of women and SC / ST representatives respectively. .
Even after 27 years of the constitutional system of Panchayati Raj institutions, the accountability system remains very weak.
The problem of ambiguity in the division of functions and funds has kept the powers concentrated with the states and thus prevented more elected and sensitive elected representatives from gaining control over the ground level issues.
The Panchayati Raj institutions have also achieved remarkable success in their journey of 27 years and have also suffered huge failures which are evaluated on the basis of the goals set by them.
While Panchayati Raj institutions have succeeded in creating another level of government and political representation at the grassroots level, they have failed in terms of providing better governance.
There are about 250,000 Panchayati Raj Institutions and Urban Local Bodies and over three million elected local self-government representatives in the country.
The 73rd and 74th constitutional amendments make it mandatory that at least one third of the total seats of local bodies should be reserved for women. India has the highest number of women in elected positions in the world (1.4 million). Reservation of seats and posts of sarpanch / head has also been done for SC / ST candidates.
A study done considering Panchayati Raj Institutions has shown that women political representation in local governments has increased the chances of women coming forward and reporting crimes.
Large investments have been made in the districts of women sarpanches, especially in drinking water, public facilities etc.
In addition, states have provided statutory protections to various power transfer provisions that have empowered local governments broadly.
Progressively the Central Finance Commissions have increased the allocation of funds for local bodies significantly, besides the grants given have also been increased.
The 15th Finance Commission is considering further increase in allocations for local governments so that the allocation to them can be made in accordance with international standards.
suggestion
Real fiscal federalism ie financial autonomy with financial responsibility can provide a long-term solution and without these, Panchayati Raj institutions will prove to be only a costly failure.
The 6th report of the Second Administrative Reforms Commission ('Local Governance - An Inspiring Journey Towards the Future' - Local Governance- An Inspiring Journey into the Future) recommended that the actions of each level of government should be clearly demarcated.
States should adopt the concept of 'activity mapping' where each state clearly indicates responsibilities and roles for different levels of government in relation to the topics listed in Schedule XI.
Subjects should be divided at different levels on account of public accountability.
States like Karnataka and Kerala have taken some steps in this direction but overall progress has been highly uneven.
In particular, upward planning is required at the district level, based on the ground inputs received from the Gram Sabha.
Karnataka has created a separate bureaucratic cadre / cadre for the panchayats to get rid of the system of deputation of officers where these officers often remain overriding elected representatives.
This system should be adopted in other states also to strengthen the real character of local self-government.
The Center also needs to encourage the states financially so that the states are motivated for effective transfer of power towards the Panchayats in terms of work, finance and employees.
They should be trained to develop expertise in local representatives so that they can contribute more in planning and implementation of policies and programs.
In order to solve the problem of proxy representation, the path of social empowerment has to be followed before political empowerment.
Recently states like Rajasthan and Haryana have set certain minimum eligibility standards for candidates for Panchayat elections. Such qualifications can aid in improving the effectiveness of standard governance mechanisms.
Such qualification standards should be applicable to the MLAs and MPs as well and the government should intensify the efforts being made for universal education in this direction.
There should be a clear mechanism to ensure that states follow constitutional provisions or not; This compliance is necessary especially in the case of acceptance and implementation of the recommendations of the State Finance Commissions (SFCs).
Road ahead
The immediate need of the hour is to bring about an overall change in the lives of rural beneficiaries by improving social, economic and health status through effective linkage / linkage through community, government and other developmental agencies.
The government should take remedial action in the interest of democracy, social inclusion and cooperative federalism.
The demand of the people for permanent decentralization and support should be centered on the agenda of decentralization. There is a need to develop a framework to accommodate the demand for decentralization.
Clarity in work assignment is important and local governments should have clear and independent sources of finance.
"If we see our dream of panchayat raj i.e. true democracy, then we will see even the poorest and lowest Indian as the ruler of India like the most influential Indian of the land." - Mahatma Gandhi
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